Khatu Shyam Ji: महाभारत का वह योद्धा जो तीन बाणों से कर सकता था पूरा युद्ध समाप्त, जानें रहस्य
Khatu Shyam Ji: जानिए महाभारत के उस महान योद्धा बर्बरीक का पूरा जीवन चरित्र, जिन्हें तीन बाणों से तीनों लोकों का संहार करने की शक्ति प्राप्त थी। पढ़ें खाटू श्याम जी के पूर्व जन्म का रहस्य।
By: दैनिक रियल्टी ब्यूरो | Date: | 24 Oct 2025
Khatu Shyam Ji: तीन बाणों से युद्ध समाप्त करने वाले वीर बर्बरीक की पूरी कहानी और अनसुलझा रहस्य
महाभारत के विशाल युद्ध में ऐसे कई बलशाली योद्धाओं ने भाग लिया जिन्होंने अपने पराक्रम से इतिहास में अपनी अमिट छाप छोड़ी। इन्हीं में से एक ऐसा महान योद्धा भी था, जिसके पास सिर्फ तीन बाणों से उस भयंकर युद्ध को क्षण भर में समाप्त कर देने की अद्भुत शक्ति थी। यह रहस्यमय योद्धा कोई और नहीं, बल्कि भीम के पोते और घटोत्कच के पुत्र वीर बरबरीिक थे। आज के समय में, उन्हें उनके त्याग, बलिदान और वचनबद्धता के लिए भगवान श्री कृष्ण जी द्वारा दिए गए वरदान स्वरूप Khatu Shyam Ji के नाम से पूजा जाता है। यह विशेष रिपोर्ट आपको उस वीर क्षत्रिय के जन्म, दिव्य शक्तियों, श्री कृष्ण जी के साथ उनके संवाद और उनके अंतिम महान बलिदान की गहराई से जानकारी देगी। पाठकों को इस लेख के माध्यम से उनकी अद्वितीय कथा के हर तथ्य से साक्षात्कार कराया जाएगा, जो उन्हें धर्म, निष्ठा और वचन पालन के महत्व से अवगत कराएगी। यह एक ऐसी कहानी है जो हमें भारतीय पौराणिकता के अद्भुत रहस्यों से जोड़ती है।
वीर बर्बरीक का जन्म और प्रारंभिक जीवन: वरदान और नामकरण का रहस्य
महाभारत के युद्ध में एक महान योद्धा ने भाग लेने की इच्छा जताई थी, जिसके पराक्रम की कल्पना करना भी देवताओं के लिए कठिन था, और वह वीर योद्धा थे बरबरीक। बरबरीिक का जन्म महाबलशाली घटोत्कच और मोरवी के घर हुआ था। घटोत्कच स्वयं भीम और हिडिंबा के पुत्र थे, जिससे यह स्पष्ट होता है कि बरबरीिक का वंश असाधारण बल और शौर्य से भरा हुआ था। उनकी माता मोरवी भी राक्षस जाति की एक शक्तिशाली महिला थीं। बरबरीिक की एक खास बात यह थी कि उन्होंने जन्म लेते ही युवा अवस्था को प्राप्त कर लिया था। जब घटोत्कच ने बालक को अपने सीने से लगाया, तो उन्होंने पाया कि बालक के केश बरबराकार, यानी घुंघराले थे। इसी कारणवश घटोत्कच ने अपने पुत्र का नाम ‘बरबरीिक’ रखा। यह नाम उनके जन्म की विशिष्ट पहचान बन गया।
बरबरीिक केवल शारीरिक बल में ही महान नहीं थे, बल्कि उनका हृदय भी अत्यंत सुंदर और पवित्र था। अपने पिता घटोत्कच के साथ, बरबरीिक द्वारका में भगवान श्री कृष्ण जी से मिलने पहुंचे। वहाँ बालक बरबरीिक ने श्री कृष्ण जी से एक महत्वपूर्ण प्रश्न किया। उन्होंने पूछा कि संसार में उत्पन्न हुए जीवों का कल्याण किस साधन से हो सकता है। बरबरीिक की इस गहरी आध्यात्मिक जिज्ञासा को देखकर, श्री कृष्ण जी अत्यंत प्रभावित हुए और उन्होंने बरबरीिक से कहा कि तुम्हारा हृदय बहुत सुंदर है, इसलिए आज से तुम्हारा एक और नाम ‘सुहृदय’ होगा। श्री कृष्ण जी ने उन्हें पहले बल प्राप्त करने के लिए देवियों की आराधना करने की सलाह दी।
गुरु श्री कृष्ण जी की आज्ञा पाकर, बरबरीिक ने महिसागर संगम तीर्थ में जाकर नवदुर्गा देवियों की घोर आराधना की, और यह तपस्या उन्होंने पूरे तीन वर्षों तक की। बरबरीिक की इस गहन पूजा और निष्ठा से देवियां बहुत प्रसन्न हुईं और उन्होंने बरबरीिक को प्रत्यक्ष दर्शन दिए। देवियों ने उन्हें केवल दर्शन ही नहीं दिए, बल्कि ऐसा दुर्लभ बल भी प्रदान किया जो तीनों लोकों में किसी और के पास नहीं था। इसके अतिरिक्त, देवियों ने उन्हें एक नया नाम 'चांडिल्य' भी दिया। देवियों ने बरबरीिक को यह आशीर्वाद दिया कि वह समस्त विश्व में प्रसिद्ध और पूजनीय होंगे। इस प्रकार, बरबरीिक को अपने जीवन के शुरुआती चरण में ही देवियों का आशीर्वाद और असीमित शक्ति प्राप्त हुई, जिसकी नींव उनके महान बलिदान की कथा में रखी गई।
तीन बाणों की दिव्य शक्ति का राज और प्रतिज्ञा
वीर बरबरीिक को मिली शक्तियों में सबसे महत्वपूर्ण थे उनके तीन अभेद्य बाण, जिनके कारण उन्हें ‘तीन बाणधारी’ के नाम से भी प्रसिद्धि मिली। इन बाणों की शक्ति सामान्य नहीं थी; ये दिव्य शक्ति से भरपूर थे और देवी दुर्गा से वरदान स्वरूप बरबरीिक को मिले थे। पुराणों के अनुसार, ये तीनों बाण इतने शक्तिशाली थे कि वे तीनों लोकों का संहार करने में सक्षम थे। यह असाधारण बल बरबरीिक को महादेव जी की घोर तपस्या के पश्चात प्राप्त हुआ था। वर्षों तक भगवान शिव शंकर की आराधना करने के बाद, जब महादेव प्रसन्न हुए, तो उन्होंने बरबरीिक को वे तीन अभैद्य बाण प्रदान किए। इसके साथ ही, अग्निदेव ने भी प्रसन्न होकर उन्हें अपना दिव्य धनुष प्रदान किया था। इन दिव्य शस्त्रों को प्राप्त करने के बाद, बरबरीिक एक अजेय योद्धा बन चुके थे, जिन्होंने अपने प्रशिक्षण और तपस्या के माध्यम से असीमित शक्तियां अर्जित कर ली थीं।
बरबरीिक ने अपनी माता मोरवी को एक महत्वपूर्ण वचन दिया था। यह वचन उनके चरित्र की दृढ़ता और नैतिकता का प्रतीक था। उन्होंने अपनी माता को यह प्रतिज्ञा दी थी कि वह महाभारत के युद्ध में हमेशा उस पक्ष की ओर से लड़ेंगे जो निर्बल होगा और हार की ओर अग्रसर होगा। यह प्रतिज्ञा ही आगे चलकर उनके जीवन की सबसे बड़ी परीक्षा बन गई। जब महाभारत का युद्ध कौरवों और पांडवों के मध्य अपरिहार्य हो गया, तो बरबरीिक के मन में भी युद्ध में सम्मिलित होने की इच्छा जागृत हुई। वह अपने नीले रंग के घोड़े पर सवार होकर, अपने दिव्य धनुष और तीन बाणों के साथ कुरुक्षेत्र की रणभूमि की ओर अग्रसर हुए। उनकी यह यात्रा ही Khatu Shyam Ji के रूप में उनके पूजे जाने की आधारशिला बनी। उनकी यह शर्त – हारने वाले की ओर से लड़ना – यह दर्शाती थी कि वह न्याय और धर्म के पक्षधर थे, भले ही इसके लिए उन्हें किसी भी हद तक जाना पड़े।
युद्ध में विजय की घोषणा और श्री कृष्ण जी की चुनौती
जब सभी पांडव और श्री कृष्ण जी युद्ध की तैयारियों के संबंध में एकत्रित हुए, तब युधिष्ठिर ने सभी महारथियों से पूछा कि कौन कितने दिन में युद्ध समाप्त कर सकता है। अर्जुन ने गर्व के साथ कहा कि वह एक ही दिन में सेना सहित समस्त कौरवों को नष्ट कर सकते हैं। यह सुनकर, महाबलशाली घटोत्कच पुत्र बरबरीिक ने हंसते हुए एक चौंकाने वाला दावा किया। उन्होंने कहा, "पिता, मैं तो केवल एक ही पल में भीष्म आदि सभी महारथियों को यमलोक पहुंचा सकता हूँ"। उन्होंने आगे कहा कि यह दावा वह अपनी दिव्य वस्तुओं के बल पर कर रहे हैं, जिसमें उनका भयंकर धनुष और भगवती सिदंबिका द्वारा दिया गया खड़क भी शामिल है।
बरबरीिक के इस अत्यधिक आत्मविश्वास भरे कथन को सुनकर, अर्जुन ने नीची गर्दन करके प्रश्नांकित दृष्टि से श्री कृष्ण जी की ओर देखा। श्री कृष्ण जी, जो सर्वव्यापी थे, उन्होंने ब्राह्मण वेश धारण कर बरबरीिक की परीक्षा लेने का निर्णय लिया। उन्होंने बरबरीिक को रोका और यह जानकर उनकी हँसी भी उड़ाई कि वह मात्र तीन बाणों के साथ युद्ध में सम्मिलित होने आया है। इस पर बरबरीिक ने स्पष्ट किया कि उनका एकमात्र एक बाण ही शत्रु सेना को परास्त करने के लिए पर्याप्त है, और वह बाण कार्य पूरा करने के बाद वापस उनके तरकस में लौट आएगा। उन्होंने चेतावनी दी कि यदि तीनों बाणों का प्रयोग किया गया, तो तीनों लोकों में हाहाकार मच जाएगा।
श्री कृष्ण जी ने उनकी शक्ति को परखने के लिए उन्हें एक चुनौती दी। जिस पीपल के पेड़ के नीचे वे दोनों खड़े थे, श्री कृष्ण जी ने कहा कि बरबरीिक उस पेड़ के सभी पत्तों को छेद कर दिखाएँ। बरबरीिक ने चुनौती सहर्ष स्वीकार की, अपने तरकस से एक बाण निकाला, और ईश्वर का स्मरण कर उसे पेड़ के पत्तों की ओर चला दिया। तीर ने क्षण भर में पेड़ के सभी पत्तों को भेद दिया, और फिर वह बाण श्री कृष्ण जी के पैर के इर्द-गिर्द चक्कर लगाने लगा। इसका कारण यह था कि श्री कृष्ण जी ने एक पत्ता अपने पैर के नीचे छुपा लिया था। बरबरीिक ने कृष्ण जी से आग्रह किया कि वह अपना पैर हटा लें, अन्यथा बाण उन्हें चोट पहुँचा सकता है।
बरबरीिक ने अपनी शक्ति का प्रदर्शन करने के बाद, युद्ध जीतने के अपने तरीके को भी स्पष्ट किया। उन्होंने तुरंत धनुष पर बाण का संधान किया, उसे लाल रंग की भस्म से भर दिया, और कान तक खींच कर छोड़ दिया। उस बाण के मुख से जो लाल भस्म उड़ा, वह दोनों सेनाओं के सैनिकों के मर्म स्थलों (fatal spots) पर जाकर गिरा। केवल पांच पांडव, कृपाचार्य, श्री कृष्ण जी और अश्वत्थामा के शरीर पर उस लाल बिंदु का निशान नहीं लगा। बरबरीिक ने सभी से कहा कि इस क्रिया से उन्होंने मरने वाले सभी वीरों के मर्म स्थान का निरीक्षण कर लिया है। अब वह उन्हीं मर्म स्थानों पर देवी द्वारा दिए गए तीक्ष्ण और अमोग बाणों को मारेंगे, जिससे सभी योद्धा क्षण भर में मृत्यु को प्राप्त हो जाएंगे।
सूर्यवर्चा यक्षराज से वीर बर्बरीक बनने की पौराणिक गाथा
जैसे ही वीर बरबरीिक ने अपनी अविश्वसनीय शक्ति का प्रदर्शन किया और युद्ध को क्षण भर में समाप्त करने की बात कही, तभी श्री कृष्ण जी कुपित हो उठे और उन्होंने अपने सुदर्शन चक्र से बरबरीिक का मस्तक काट गिराया। यह अप्रत्याशित घटना देखकर वहाँ कोलाहल मच गया और सभी आश्चर्यचकित होकर श्री कृष्ण जी की ओर देखकर रोने लगे। तभी वहाँ सिद्ध अंबिका सहित 14 देवियां प्रकट हुईं। देवी श्री चंडिका ने घटोत्कच को सांत्वना देते हुए मीठे स्वर में बरबरीिक के वध का कारण समझाया।
देवी चंडिका ने बताया कि बरबरीिक का वध क्यों आवश्यक था—यह एक पूर्व निर्धारित घटना थी। पूर्व काल में, राक्षसों के अत्याचारों से दुखी होकर पृथ्वी देवताओं के पास गई और उनसे अपना भार उतारने की याचना की। भगवान विष्णु और ब्रह्मा जी ने 'तथास्तु' कहा। उसी समय, सूर्यवर्चा नामक एक यक्षराज ने अहंकारवश भुजा उठाकर कहा कि "मेरे रहते हुए मनुष्य लोक में क्यों जन्म धारण करते हैं? मैं अकेला ही अवतार लेकर पृथ्वी के भारभूत सब दैत्यों का संहार कर दूंगा"। सूर्यवर्चा के इस अहंकार भरे बोल सुनकर ब्रह्मा जी कुपित हो गए। ब्रह्मा जी ने सूर्यवर्चा को शाप दिया कि "दुर्मते, पृथ्वी का यह महान भार सभी देवताओं के लिए दुःसाध्य है और उसे तू केवल अपने लिए ही साध्य बतलाता है। मूर्ख! पृथ्वी का भार उतारते समय युद्ध शुरू होने से पहले ही, विष्णु अवतार श्री कृष्ण जी अपने हाथ से तेरे शरीर का नाश करेंगे"।
ब्रह्मा जी के शाप से दुखी होकर सूर्यवर्चा ने भगवान विष्णु से प्रार्थना की कि अगले जन्म में उन्हें ऐसी बुद्धि मिले जो सब अर्थों को सिद्ध करने वाली हो। भगवान विष्णु ने उन्हें 'ऐसा ही होगा' का आशीर्वाद दिया और कहा कि देवियाँ उनके मस्तक की पूजा करेंगी और वह पूज्य हो जाएंगे। देवी चंडिका ने सभी राजाओं को समझाया कि यह सूर्यवरचा ही घटोत्कच का पुत्र बरबरीिक है। इस प्रकार, श्री कृष्ण जी द्वारा बरबरीिक का वध किसी क्रोधवश नहीं, बल्कि ब्रह्मांडीय संतुलन और पूर्व निर्धारित शाप को पूरा करने के लिए किया गया था।
शीश दान और श्याम नाम की प्राप्ति: कलयुग के पूज्य देव (Khatu Shyam Ji)
जब श्री कृष्ण जी ने ब्राह्मण वेश में बरबरीिक से दान की अभिलाषा व्यक्त की, तो वीर बरबरीिक ने उन्हें वचन दिया कि यदि वह उनकी अभिलाषा पूर्ण करने में समर्थ होगा, तो अवश्य करेगा। श्री कृष्ण जी ने उनसे उनके 'शीश का दान' माँगा। बालक बरबरीिक क्षण भर के लिए चकरा गया, परंतु उसने अपने वचन की दृढ़ता दिखाते हुए दान देने की सहमति दी। उसने ब्राह्मण से अपने वास्तविक रूप से अवगत कराने की प्रार्थना की। श्री कृष्ण जी के रूप को जानकर, बरबरीिक ने उनके विराट रूप के दर्शन की अभिलाषा व्यक्त की। श्री कृष्ण जी ने उन्हें अपना विराट रूप दिखाया और समझाया कि युद्ध आरंभ होने से पहले युद्ध भूमि की पूजा के लिए एक वीर क्षत्रिय के शीश के दान की आवश्यकता होती है। श्री कृष्ण जी ने बरबरीिक को युद्ध में सबसे वीर की उपाधि से अलंकृत किया।
बरबरीिक ने रात भर अपने आराध्य भगवान शिव की पूजा अर्चना की और फाल्गुन माह की द्वादशी को स्नान आदि से निर्मित होकर, पूजा अर्चना करने के पश्चात, उन्होंने अपने शीश का दान दे दिया। उनका सिर युद्ध भूमि के समीप ही एक पहाड़ी पर सुशोभित किया गया, जहाँ से बरबरीिक संपूर्ण युद्ध का जायजा ले सकते थे। श्री कृष्ण जी ने स्वयं देवी चंडिका से कहा, "हे देवी चंडिका, यह भक्त का मस्तक है। इसे तुम अमृत से अजर अमर बना दो"। बरबरीिक ने जीवित होने पर युद्ध देखने की इच्छा जताई। तब भगवान श्री कृष्ण जी ने उन्हें वरदान दिया कि जब तक यह पृथ्वी, चंद्रमा, आकाश और नक्षत्र रहेंगे, तब तक तुम बरबरीिक सब लोगों के द्वारा पूजनीय रहोगे। उन्हें पर्वत शिखर पर स्थित होने का स्थान मिला, जहाँ से उन्होंने होने वाले युद्ध को देखा।
युद्ध की समाप्ति के पश्चात, पांडवों में यह आपसी बहस शुरू हो गई कि युद्ध में विजय का श्रेय किसको जाता है। इस पर श्री कृष्ण जी ने सुझाव दिया कि बरबरीिक का शीश संपूर्ण युद्ध का साक्षी है, अतः उससे बेहतर निर्णायक कोई नहीं हो सकता। बरबरीिक के शीश ने उत्तर दिया कि श्री कृष्ण जी ने ही युद्ध में विजय प्राप्त कराने में सबसे महान कार्य किया है। उनकी शिक्षा, उनकी उपस्थिति और उनकी युद्ध नीति ही निर्णायक थी। बरबरीिक ने बताया कि उन्हें युद्ध भूमि में सिर्फ उनका सुदर्शन चक्र घूमता हुआ दिखाई दे रहा था, जो शत्रु सेना को नष्ट कर रहा था। यह सुनकर श्री कृष्ण जी ने बरबरीिक को वर दिया और कहा कि "तुम मेरे 'श्याम' नाम से पूजे जाओगे"। खाटू नामक ग्राम में प्रकट होने के कारण, वह Khatu Shyam Ji के नाम से प्रसिद्धि पाएँगे। श्री कृष्ण जी ने यह भी वर दिया कि उनकी सभी 16 कलाएँ बरबरीिक के शीश में स्थापित होंगी और वह श्री कृष्ण जी के ही प्रतिरूप बनकर पूजे जाएँगे। इस प्रकार, घटोत्कच के पुत्र वीर बरबरीिक ने त्याग और बलिदान की सर्वोच्च मिसाल पेश करते हुए कलयुग के महान पूज्य देव Khatu Shyam Ji का पद प्राप्त किया।
महाभारत युद्ध के साक्षी बर्बरीक: न्याय और निष्ठा का प्रतीक
बरबरीिक का मस्तक युद्ध भूमि के समीप ही एक पहाड़ी पर स्थित था, जिससे वह कुरुक्षेत्र में हुए संपूर्ण युद्ध का जायजा ले पाए। यह वह स्थान था जहाँ से उन्होंने धर्म और अधर्म की उस महागाथा का प्रत्यक्ष अवलोकन किया। युद्ध समाप्ति पर, जब पांडवों में श्रेष्ठता को लेकर विवाद उठा, तो बरबरीिक के शीश ने जो निर्णायक उत्तर दिया, वह न्याय और सत्य की स्थापना के लिए Khatu Shyam Ji के महत्व को दर्शाता है। उनके उत्तर ने स्पष्ट किया कि युद्ध की असली कुंजी दिव्य शक्ति और युद्ध नीति थी, जिसका संचालन स्वयं भगवान श्री कृष्ण जी कर रहे थे।
- जब बरबरीिक के शीश से पूछा गया कि विजय का श्रेय किसे जाता है, तो उन्होंने स्पष्ट कहा कि उन्हें रणभूमि में सिर्फ सुदर्शन चक्र घूमता दिखाई दे रहा था, जो शत्रु सेना का विनाश कर रहा था।
- उन्होंने कहा कि श्री कृष्ण जी की शिक्षा, उपस्थिति और युद्ध नीति ही निर्णायक थी।
यह कथन इस बात का प्रमाण है कि बरबरीिक ने अपनी प्रतिज्ञा (हारने वाले की ओर से लड़ने) के अनुसार ही युद्ध का अवलोकन किया, लेकिन उनकी दृष्टि में, कोई भी मानव योद्धा निर्णायक नहीं था। बरबरीिक का चरित्र न्याय, बलिदान और निष्ठा का प्रतीक है। उनकी कहानी हमें यह सिखाती है कि नैतिकता और वचन का पालन करना सबसे महत्वपूर्ण होता है, भले ही उसके लिए हमें सबसे बड़ा त्याग क्यों न करना पड़े। उन्होंने अपने जीवन में गुरु की आज्ञा (श्री कृष्ण जी), माता को दिए वचन, और अपनी तपस्या से प्राप्त शक्तियों का उपयोग धर्म की स्थापना के लिए किया। उनका बलिदान न केवल एक वीर क्षत्रिय का बलिदान था, बल्कि यह प्रमाणित करता है कि पूर्व जन्म के कर्म (सूर्यवर्चा यक्षराज के अहंकार) का निवारण आवश्यक था।
Conclusion
वीर बर्बरीक की यह कथा भारतीय पौराणिक इतिहास के सबसे प्रेरक अध्यायों में से एक है। भीम के पौत्र और घटोत्कच के पुत्र बर्बरीक, जिन्हें तीन अभेद्य बाणों का वरदान प्राप्त था, अपनी माता को दिए वचन के कारण महाभारत युद्ध के निर्णायक मोड़ पर खड़े थे। श्री कृष्ण जी ने उनकी शक्ति और प्रतिज्ञा को जानकर, धर्म की रक्षा के लिए उनसे शीश का दान माँगा। उनके इस महान बलिदान के परिणामस्वरूप, श्री कृष्ण जी ने उन्हें अपना 'श्याम' नाम प्रदान किया और वरदान दिया कि वह कलयुग में Khatu Shyam Ji के रूप में पूजे जाएँगे। आज भी, खाटू नामक ग्राम में उनका मंदिर स्थित है, जहाँ उनका शीश स्थापित है और उन्हें करोड़ों भक्तों द्वारा न्याय और निष्ठा के प्रतीक के रूप में पूजा जाता है। भविष्य में, उनकी यह कथा पीढ़ी दर पीढ़ी लोगों को वचन पालन और धर्म के मार्ग पर चलने की प्रेरणा देती रहेगी, क्योंकि उनका त्याग स्वयं भगवान विष्णु के अवतार द्वारा अनुमोदित किया गया था।
FAQs (5 Q&A):
Q. Khatu Shyam Ji कौन थे और उनका वास्तविक नाम क्या था? A. Khatu Shyam Ji महाभारत काल के वीर योद्धा बर्बरीक थे, जो भीम के पोते और घटोत्कच के पुत्र थे। उनका जन्म राक्षस माता मोरवी से हुआ था। श्री कृष्ण जी ने उन्हें 'सुहृदय' नाम भी दिया था, और देवियों ने उन्हें 'चांडिल्य' कहा था। अंत में, श्री कृष्ण जी ने उन्हें अपने नाम पर 'श्याम' नाम से पूजे जाने का वरदान दिया।
Q. वीर बर्बरीक को तीन बाणों की दिव्य शक्ति कैसे प्राप्त हुई? A. वीर बर्बरीक ने अपनी माता की आज्ञा पर कई वर्षों तक महादेव जी की घोर तपस्या की थी। उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर भगवान शिव शंकर ने उन्हें तीन अभैद्य बाण प्रदान किए। ये बाण इतने शक्तिशाली थे कि वे अकेले ही तीनों लोकों का संहार कर सकते थे, जिससे बर्बरीक 'तीन बाणधारी' के नाम से प्रसिद्ध हुए।
Q. Khatu Shyam Ji ने युद्ध में किस पक्ष से लड़ने की प्रतिज्ञा ली थी? A. Khatu Shyam Ji (बर्बरीक) ने अपनी माता को वचन दिया था कि वह महाभारत के युद्ध में हमेशा उस पक्ष की ओर से लड़ेंगे जो निर्बल होगा और हार की ओर अग्रसर होगा। श्री कृष्ण जी जानते थे कि कौरवों की हार निश्चित है, इसलिए बर्बरीक का सामना करने के लिए उन्होंने उनसे शीश का दान माँगा था।
Q. श्री कृष्ण जी ने वीर बर्बरीक का वध क्यों किया था? A. श्री कृष्ण जी ने सुदर्शन चक्र से बर्बरीक का मस्तक इसलिए काटा क्योंकि वह पूर्व जन्म में सूर्यवर्चा नामक एक यक्षराज थे, जिन्हें अहंकारवश ब्रह्मा जी ने शाप दिया था। शाप के अनुसार, विष्णु अवतार (श्री कृष्ण जी) को युद्ध आरंभ होने से पहले ही उनके शरीर का नाश करना था, ताकि पृथ्वी का भार उतारा जा सके।
Q. Khatu Shyam Ji का सिर महाभारत युद्ध के बाद कहाँ स्थापित किया गया? A. शीश दान करने के बाद, बर्बरीक ने युद्ध देखने की इच्छा जताई। श्री कृष्ण जी ने उनका सिर युद्ध भूमि के समीप एक पहाड़ी पर स्थापित कर दिया, जहाँ से उन्होंने संपूर्ण युद्ध का जायजा लिया। उनके बलिदान के सम्मान में, उन्हें खाटू नामक ग्राम में पूजे जाने का वरदान मिला, जहाँ आज उनका मंदिर है।